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भारत के महान व्यक्तित्व -3-अहिल्याबाई होल्कर
दोस्तों अब हम हमारा तीसरा आर्टिकल भारत के महान व्यक्तित्व सीरीज का आज पब्लिश कर रहे हैं तो आज हम लिख रहे हैं अहिल्याबाई होल्कर के बारे में |
"यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमंते तत्र देवता "
मनु का यह कथन भारतीय इतिहास में नारी के गरिमामय स्थान के परिप्रेक्ष्य में उचित ही है |
यह वही पावन भारत की भूमि है जिसकी रज में पतिव्रता सीता, सती सावित्री, द्रोपती, विदुषी अपाला, घोषा, वीरांगना लक्ष्मीबाई, श्री राधा, मीरा बाई, दुर्गाबाई, चाँदबीबी, इन्दिरा गांधी जैसी महान पूजनीय नारियां अवतरित हुई |इनके व्यक्तित्व की जितनी भी प्रशंसा की जाए अत्यल्प है |
ऐसा ही एक व्यक्तित्व था-इन्दौर की होल्कर शासिका अहिल्याबाई का, जिन्होंने प्रजा पर नहीं बल्कि उनके हृदय पर एक महान माता के समान वात्सल्यमयी शासन किया |यही कारण था कि जनता उन्हें मातुश्री, माँ, सती माँ व मातेश्वरी कहने लगी थी | सम्भवत यह गौरव किसी भी भारतीय सम्राट को उसके जीवन काल में नहीं मिला था राव बहादुर कीबे ने उचित ही कहा है-
"Show what a leading part the pious lady Ahilya Bai took in the stirring events of the time"
व्यक्तित्व-
अहिल्याबाई होल्कर का जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के चौड़ी नामक गाँव में मनकोजी शिंदे के घर सन् 1725 ई में हुआ था | साधारण शिक्षित अहिल्याबाई 10 वर्ष की अल्पायु में ही मालवा में इतिहासकार ई मार्सडेन के अनुसार गड़रिया जाति के होल्कर वशीय राज्य के संस्थापक मल्हारराव होल्कर के पुत्र खण्डेराव के साथ परिणय सूत्र में बंध गई थीं |
अपनी कर्तव्यनिष्ठा से उन्होंने सास-ससुर, पति व अन्य सम्बन्धियों के हृदयों को जीत लिया | समयोपरांत एक पुत्र, एक पुत्री की माँ बनीं, अभी यौवनावस्था की दहलीज पर ही थीं कि उनकी 29 वर्ष की आयु में पति का देहांत हो गया |
सन् 1766 ई में वीरवर ससुर मल्हारराव भी चल बसे | माँ के जीवन से एक महान साया उठ गया , शासन की बागडोर संभालनी पड़ी | कालांतर में देखते ही देखते पुत्र मालेराव, दोहित्र नत्थू, दामाद फणसे, पुत्री मुक्ता भी माँ को अकेला ही छोड़ चल बसे,| परिणामत: माँ अपने जीवन से हताश हो गई, परन्तु प्रजा हित में उन्होंने स्वयं को समाला और सफल दायित्वपूर्ण राज-संचालन करती हुई 13 अगस्त 1795 को नर्मदा तट पर स्थित महेश्वर के किले में भारतीय इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखाकर सदैव के लिए महानिंद्रा में सो गई |
उदयभान् शर्मा उनको श्रद्धाजलि अर्पित करते हुए कहते हैं मेरी ही गोद में विश्व का वह विश्व का अनोखा रत्न खो गया इस सोच में महेश्वर का किला आज भी नतमस्तक हो आँसू बहा रहा है नर्मदा भी इसी कारण प्रायश्चितस्वरूप निस्तब्ध रात्रि में उस घाट पर, जहां देवी का भौतिक शरीर पंचतत्व को प्राप्त हुआ था, दुखी होकर विलाप करती हुई दिखाई पडती है |
उज्ज्वल चरित्र, पतिव्रता पत्नी, वात्सल्यमयी मां, राष्ट्र निर्मात्री, कुशल शासिका राजनीतिका धर्म सहिष्णू उदात्त व्यवहारशीला संयमी धैर्यशाली जितने भी गुण एक शासक के व्यक्तित्व के लिए होना अत्यावश्यक है, उन सबका समन्वित रूप मातोश्री में था | आदर्श यथार्थ सिद्धात व व्यवहार ज्ञान व भक्ति वैराग्य व अनासक्ति कर्तव्य व प्रेम नैतिकता व भावुकता विनम्रता व दृढता, कोमलला कठोरता भोग व त्याग, लोक व परलोक भाग्य व पुरुषार्थ, शिव व सुंदर, सत्य व कल्पना सारांशत अनुभूति व अभिव्यक्ति के जितने भी पक्ष हैं, उन सबका जैसा समन्वय माँ में परिलक्षित होता है वैसा अन्य में नहीं यही कारण था कि उनकी एक समकालीन कवयित्री जोना बेली ने ठीक ही कहा है-
"For thirty years her reign of peace,
The land in blessing did increase,
And she was blessed by every tongue,
By stern and gentle, old and young."
भू पू उपराष्ट्रपति डॉ गोपालस्वरूप पाठक कहते है- "अहिल्याबाई भारतीय संस्कृति की मूर्तिमान प्रतीक थी, कितने आपत्ति के प्रसंग तथा कसौटियों के प्रसंग उस तेजस्विनी पर आए लेकिन उन सबका बड़े धैर्य से मुकाबला कर धर्म संभालते हुए उन्होंने राज्य का संसार सुरक्षित रखा. यह उनकी विशेषता थी उन्होंने भारतीय संस्कृति की परम्पराए सबके सामने रखीं भारतीय संस्कृति जब तक जाग्रत है, तब तक अहिल्याबाई के चरित्र से ही हमें प्रेरणा मिलती रहेगी |
डॉ उदयभानु शर्मा कहते हैं कि "उनकी श्रेष्ठता इन्दौर की शासिका होने में नहीं है, क्योंकि उनका त्याग इतना अनुपम, उनका साहस इतना असीम, उनकी प्रतिभा इतनी उत्कट, उनका संयम इतना कठिन और उनकी उदारता इतनी विशाल थी कि उनका नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा हा चुका है उनके पवित्र चरित्र और विराट प्रेम ने उन्हें लोकजीवन में लोकमाता का वह स्वासन दिया, जो संसार में बड़े सम्राटों साम्राज्ञियों को भी सुलभ नहीं रहा"
कृतित्व
श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-
सोहि नृपति जो नीति न जाना।
जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना।।
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
सो नृप अवसि नरक अधिकारी ॥
या ऐसे कहें कि जिस प्रकार मुख शरीर के विभिन्न अंगों की आवश्यकताओं के अनुरूप उचित परिणाम में पोषक तत्वों के ग्रहण द्वारा विवेक व निष्पक्षता से समस्त शरीर का पोषण करता है. उसी प्रकार राजा को भी न्याय व विवेक से समस्त प्रजा के विभिन्न वर्गों का संवर्द्धन करना चाहिए यही आधारशिला थी माँ की प्रशासनिक व्यवस्था की उनका स्वयं का कहना था कि "मैं अपने प्रत्येक काम के लिए जिम्मेदार हूँ, ईश्वर को मुझे जवाब देना है |"
उनका प्रशासनिक तंत्र अत्युत्तम था वे स्वय देर रात्रि तक दरबार में बैठकर राजकीय कार्यों को निपटाती थी | अधीनस्थ अधिकारियों के प्रति उनका व्यवहार अति नम्र था |
कर्तव्यनिष्ठ कर्मियों को पुरष्कृत किया जाता था तथा पदोत्रति भी की जाती थी, चाहे अमीर हो चाहे गरीब सबको एक समान न्याय सुलभ था |
उचित समय व अल्प खर्च पर न्याय दिलाने हेतु उन्होंने जगह-जगह न्यायालय स्थापित किए थे| वे स्वय अतिम निर्णय करती थी तथा निर्णय करते समय सत्य के प्रतीक रूप में मस्तक पर स्वर्ण निर्मित शिवलिग धारण करती थीं अर्थव्यवस्था सुदृढ थी, लगान वसूली की दृष्टि से उन्होंने अपने राज्य को तीन भागों में विभक्त किया था |
कृषि व वाणिज्य को भी बढ़ावा दिया | वाणिज्य व्यापार ने काफी उन्नति की थी उन्होंने सूती वस्त्रों विशेषकर महेश्वर के साड़ी उद्योग को काफी बढ़ावा दिया |
वे धार्मिक रूप से सहिष्णु थीं हिन्दू धर्म की उपासिका होने के बावजूद भी वे मुस्लिम धर्म के प्रति अत्युदार थी, उन्होंने महेश्वर में मुसलमानों को बसाया तथा मस्जिदों के निर्माण हेतु धन भी दिया |
सास्कृतिक कृत्यों को भी उन्होंने उदार संरक्षण दिया कन्याकुमारी से हिमालय तक और द्वारिका से लेकर पुरी तक अनेकानेक मंदिर, घाट, तालाब, बावड़ियों, दान संस्थाएं, धर्मशालाएं, कुए, भोजनालय, दानव्रत आदि खुलवाए |
काशी का प्रसिद्ध विश्वनाथ मदिर, महेश्वर के प्रसिद्ध मंदिर व घाट उनकी स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं | साहित्यिक क्षेत्र में कविवर मोरोपत खुशालीराम, अनंत फंदी उनके दरबारी रत्न थे अनंत फंदी एक महान गायक भी था, जो लावनियों गाने में अति निपुण था |
उनके पास अपने राज्य की रक्षा हेतु एक अनुशासनबद्ध सेना भी थी जिसका सेनापतित्व महावीर तुकोजीराव होल्कर प्रथम के नेतृत्व में था उन्होंने अपने स्वयं के सेनापतित्व में 500 महिलाओं की एक सैन्य टुकड़ी का भी गठन किया था सेना में 'ज्वाला' नामक विशाल तोप शामिल थी उनकी सेना एक फ्रांसीसी सेनाधिकारी दादुरनेक द्वारा यूरोपीय पद्धति पर प्रशिक्षित की गई थी |
मातुश्री ने अनावश्यक युद्ध कभी नहीं किए लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि वे भीरू थी, जब किसी ने इन्दौर राज्य पर ईंट फेंकी तो माँ ने उसका जवाब पत्थर से दिया उनका कहना था कि समस्त भारत की जनता एक है हमारा राज्य बड़ा है और उनका छोटा, हम महान है और वे जगली-इस भेदभाव का विष एक दिन हम सबको नरक में धकेलेगा" माँ का कथन आज के परिप्रेक्ष्य में दष्टव्य है|
धन्य है ऐसा राष्ट्र प्रेम उन्होंने विभिन्न राजदरबारों में अपने राजदूत रख छोड़े थे उन्हें अपने जीवन में कुछ अनावश्यक युद्ध, यथा राघोवा से सन् 1766-67 ई में,
रामपुरा-मानपुरा के चन्द्रावत राजपूतों से मंदसौर का युद्ध 1771 ई. में,
अजमेर के निकट लखेरी का युद्ध 1-6-1773 ई को महादजी सिंधिया के सेनापति व उनकी सेना से, करने पड़े जिनमें वे विजयी रहीं |
नाना फडनवीस ने उनकी सैन्य प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए कहा था- "शापादपि शरादपि असे बायकांत अहिल्याबाई दिसण्यांत आली, आज पावेतों बाईंची स्नानसंध्या व धर्मांची प्रवृत्ति ऐक्यात ऐत होती आज पराक्रमाची गोष्ट माठीच केली. पुण्याचा दरवाजा महेष्मती नर्मदातीर है आह्मास आज समजले, (अर्थात् औरतों में अहिल्याबाई शाप से भी, हथियार से भी कहने वाली मिलीं आज तक बाई की स्नान संध्या और धार्मिक प्रवृत्तियाँ सुनने को मिलती थीं आज उनके पराक्रम की बात सुनी आज हमें प्रतीत हुआ कि पूने का दरवाजा नर्मदा तट पर बसा महेश्वर नगर है)
उनके कार्यों के सम्बन्ध में मध्य भारत के तत्कालीन एक अग्रेज प्रतिनिधि सर जान माल्कम कहते हैं-
"The success of Ahilya Bai in the administration of her domains was altogether wonderful In the most sober view that can be taken of her character, she certainly appears, within her limited sphere to have been one of the purest and most exemplary rulers that ever existed."
प. जवाहरलाल नेहरू कहते हैं कि जिस समय वह गद्दी पर बैठी वह 30 वर्ष की नौजवान विधवा थी और अपने राज्य के प्रशासन में वह बड़ी खूबी से सफल रहीं वह स्वय राज्य का कारोबार देखती थीं उन्होंने युद्धों को टाला शांति कायम रखी और अपने राज्य को ऐसे समय में खुशहाल बनाया, जबकि भारत का ज्यादातर हिस्सा उथल-पुथल की हालत में था इसलिए यह ताज्जुब की बात नहीं कि आज भी भारत में सती की तरह पूजी जाती हैं और अंत में, मातेश्वरी का व्यक्तित्व व कृतित्व सत विनोबा भावे के शब्दों में इस प्रकार समाप्त करते हैं-
"अहिल्याबाई वास्तव में न्यायधर्मनिरता थीं हिन्दुस्तान के इतिहास में यह एक बड़ा प्रयोग था राज्य कार्य की धुरी एक उपासना परायण, धर्मनिष्ठ स्त्री के हाथ में आई थी सारे भारत के इतिहास में यह एक विचित्र प्रयोग ही कहा जाएगा जो स्त्रियाँ निवृत्ति निष्ठ होती हैं वे राज कार्य भी चला सकेंगी, सोची नहीं जा सकती पर मराठों ने एक ऐसा प्रयोग किया, जो अहिल्याबाई के हाथ में राज्यसूत्र सौंपा उन्होंने बहुत अच्छी तरह राज्य चलाया शस्त्रबल से दुनिया को जीतने का प्रयास कइयों ने किया, लेकिन प्रेम से, धर्म से जिन्होंने दुनिया को प्रभावित किया, उनमें अहिल्याबाई ही एक ऐसी निकलीं जो भारत के सब प्रांतों को धर्म, बुद्धि, प्रेम से जीत सकी भारत के समूचे ज्ञात इतिहास में अहिल्याबाई होल्कर का स्थान अद्वितीय है |"
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