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Untold Facts About भारत छोड़ो आंदोलन(Quit India Movement) 9 august 1942 | जाने कब और कैसे भारत में 1942 से पहले ही बन गई थी आजाद सरकार |

AjayPatel

Tue , Aug 08 2023

AjayPatel

भारत छोड़ो आंदोलन: जब 1942 में बलिया, तमलुक और सतारा में बन गई थीं आज़ाद सरकारें

9 अगस्त 1942 को मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में महात्मा गांधी ने अंग्रेज़ों से तुरंत भारत छोड़ने को कहा और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे शक्तिशाली आंदोलन की शुरूआत की. गांधी ने भारत को 'करो या मरो' का नारा दिया तो अंग्रेज़ी हुकूमत ने उसका जवाब भारी दमन से दिया.


नेहरू और गांधी
कांग्रेस की तो पूरी कार्यसमिति को गिरफ़्तार कर लिया गया, साथ ही देश में आपातकाल जैसी स्थिति बनाकर प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिए, कई जगहों पर कर्फ्यू लगा दिया तथा शांतिपूर्ण प्रदर्शनों और हड़तालों पर भी रोक लगा दिए.

जर्मनी का आक्रमण झेल रहे यूरोप को लोकतंत्र देने के लिए लड़ाई का दावा करने वाली सरकार भारत में हिटलर जैसा ही फ़ासिस्ट व्यवहार कर रही थी.

लेकिन जनता ने इस बार कमर कस ली थी, करो या मरो का जादुई असर हुआ था. पहले दो दिन पूरी तरह से शांतिपूर्ण आंदोलन हुए थे लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने जब उन पर भी लाठियाँ और गोलियाँ चलाईं तो जनता ने भी पत्थर उठा लिए.

दमन के बावजूद पूरे देश में शिक्षा संस्थानों के बहिष्कार, सरकारी इमारतों पर धावा बोलने, डाक और रेल संचार में बाधा पहुँचायी गई.

गांधीजी से जब बाद में जनता की इस हिंसा पर सवाल किये गए तो उन्होंने स्पष्ट कहा- इस हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ब्रिटिश प्रशासन है.

आज़ादी का जज़्बा किस क़दर भरा हुआ था यह इसी बात से समझा जा सकता है कि कम से कम तीन जगहों पर इस दौर में आज़ाद सरकारें बना ली गई थीं.

उत्तर प्रदेश में आंदोलन में तेज़ी तब आई जब इलाहाबाद में 12 अगस्त को निकले छात्रों के आंदोलन पर लाठीचार्ज और गोलीबारी की गई. कई छात्र-छात्राएं घायल हुए और एक छात्र शहीद हुआ. लोगों का गुस्सा भड़क उठा और ईस्ट इंडिया रेलवे स्टेशन पर भारी तोड़-फोड़ हुई.

इसके एक दिन पहले ही बलिया में 15,000 लोगों का एक भारी जुलूस निकला था, जिसका एक जत्था ज़िला अदालत की ओर जा रहा था. इसे रोकने पुलिस एक मजिस्ट्रेट को लिए पहुँची और इधर से पत्थर चले तो उधर से गोलियाँ. सौ से अधिक छात्र घायल हुए तथा एक छात्र शहीद हो गया.

14 तारीख तक आंदोलन ऐसे ही चलता रहा. छात्रों ने स्थानीय रेलवे स्टेशन को जला दिया और अदालत में भी तोड़-फोड़ की. रसड़ा सब डिवीजन में खजाने और फिर थाने पर आक्रमण किया गया और राष्ट्रीय झण्डा फहरा दिया गया.

भीड़ बैरिया थाने पहुँची तो थानेदार रामसुंदर सिंह ने झण्डा तो फहराने दिया लेकिन हथियार के लिए अगले दिन का बहाना किया. अगले दिन जब जनता पहुँची तो थानेदार ने धोखा दिया और गोलीबारी में 19 लोग मारे गए, लेकिन जनता डटी रही और अंत में उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा.

ऐसा ही धोखा नायब तहसीलदार रसड़ा, आत्माराम ने भी किया था जिसमें तीन लोग मारे गए और कई घायल हुए, लेकिन जनता के जोश के आगे वह भी नहीं टिक सका. भीड़ जब बलिया पहुँची तो ज़िला मजिस्ट्रेट ने घबराकर कांग्रेस के स्थानीय नेता चित्तू पांडे के साथ सभी राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया.

19 अगस्त को फिर गोलीबारी हुई लेकिन अब ज़िले में अंग्रेज़ी प्रशासन पूरी तरह पंगु हो चुका था और जनता ने चित्तू पांडे के नेतृत्व में राष्ट्रीय सरकार की घोषणा कर दी. अगले दो हफ़्ते 'बाग़ी' बलिया आज़ाद रहा.

आंदोलन को दबाने की कोशिश


गोवालिया टैंक मैदान

इमेज स्रोत

इमेज कैप्शन,

मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान से ही महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का आहवान किया था.

आंदोलन को दबाने के लिए सरकार ने मार्श स्मिथ और नीदरसोल के नेतृत्व में सेना भेजी. अनियंत्रित लूटमार, आगजनी, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार से दमन में लगभग 127 लोग मारे गए और 274 घायल हुए. कई लाख की संपत्ति लूटकर नीलाम कर दी गई.

एक मंदिर को सिर्फ़ इसलिए नष्ट कर दिया गया कि उस पर कांग्रेस का झण्डा लहरा रहा था. ढाई सौ मकान जला दिए गए. औरतों के साथ बलात्कार हुए और पाँच से छह सौ लोगों को जेल में डाल दिया गया, लेकिन बलिया की जनता ने बहादुरी से मुक़ाबला किया और अंग्रेज़ों को बलिया पर पूरी तरह से नियंत्रण पाने में महीने भर लग गया.

चित्तू पांडे की तलाश में कई गाँव जला दिए गए लेकिन वह अंग्रेज़ों के हाथ नहीं आए.

बलिया के इस आंदोलन का असर बगल के ग़ाज़ीपुर पर भी पड़ा और 19 अगस्त से 21 अगस्त तक ग़ाज़ीपुर भी आज़ाद रहा. क्रूरता और दमन की कहानी वहाँ भी दुहराई गई. 167 लोगों की हत्या, 3000 लोगों को गिरफ़्तारी और 32 लाख रुपये की संपत्ति नष्ट करके ही ग़ाज़ीपुर पर फिर नियंत्रण स्थापित किया जा सका.

सीमावर्ती प्रांत बिहार में भी कई जगह राष्ट्रीय सरकार बनाने की कोशिशें हुईं. पटना में लगभग तीन दिन ब्रिटिश प्रशासन ठप रहा, मुंगेर में अधिकांश थाने कुछ समय के लिए जनता के नियंत्रण में आ गए, चंपारण, बेतिया, भागलपुर, मोतीहारी, सुल्तानपुर, संथाल परगना जैसी कई जगहों पर आंदोलनकारी थोड़े समय के लिए नियंत्रण करने में सफल हुए हालाँकि ये दीर्घजीवी नहीं हो सकीं

तमलुक की जातीय सरकार


मतांगिनी हाजरा

अदालत की ओर जा रहे जुलूस का नेतृत्व कर रहीं 62 वर्ष की मातंगिनी हाज़रा दोनों हाथों और माथे पर गोली लगने के बाद भी कांग्रेस का झण्डा नहीं छोड़ा.

बंगाल के मिदनापुर ज़िले में तमलुक और कोनताई तालुका के लोग पहले से ही सरकार से नाराज़ थे. जापानी सेना के समुद्र मार्ग से इन इलाक़ों में उतरने की आशंका से नावों, बैलगाड़ियों, साइकलों, बसों और सभी दूसरे वाहनों पर रोक लगा दी गई थी, यही नहीं यहाँ से चावल बाहर ले जाया जाने लगा.

साथ ही कोनताई-रांची मार्ग पर हवाई अड्डा बनाने के लिए ज़मीनें ली गई थीं तो वहाँ के किसान भी नाराज़ थे. न काम करने वालों को उचित मज़दूरी दी गई थी न ही ज़मीनों का उचित मुआवज़ा.

यहाँ आंदोलन की तैयारी पहले ही शुरू हो चुकी थी. कांग्रेस ने 5000 युवाओं का एक दल संगठित किया था, एक कताई केंद्र खोलकर रोज़गार से वंचित 4000 लोगों को रोज़गार दिया गया और एक एम्बुलेंस की भी व्यवस्था कर ली गई थी.

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