Thu , Aug 03 2023
मेरा वो घर जहाँ मेरा बचपन पला ,
वक़्त के साथ आज वो भी बूढ़ा हो चला....
सुनी दीवारें आज भी राह ताकती हैं...
कभी बन्द खिड़की तो कभी बंद दरवाज़ों से झाँकती हैं....
बड़ा सा वो आँगन भी आज वीरान पड़ा है...
कही घास कहीं पत्तों तो कहीं मिट्टी से घिरा है...
जिसके हर कोने को था कभी बड़े प्यार से सजाया...
आगे बढ़ने की दौड़ में जिसे पीछे छोड़ आया....
खवाहिश है कि...
भागती ज़िंदगी से कुछ वक़्त निकाल पाऊँ....
सुकून के कुछ लम्हे फिर उस घर में बीता पाऊँ....
यूँ पुरखों की जमीन बेचकर
शहर मे ना जाया करो
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ना जाने कब लौटना पड़े .. गाँव मे भी एक घर बनाया करो… ?
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np
03 Aug 23
Very Nice and Emotional Poetry....